जाने अपने शरीर में स्थित पंचकोश के बारे मैं

देहरादून – मनुष्य की आत्मा पाँच कोशों के साथ संयुक्त है, जिन्हें पंचशरीर भी कहते है। वे पाँच कोश निम्नांकित है, पहला है, अत्रमय कोश- यह पाचभौतिक स्थूल शरीर का पहला भाग है। अन्नमय कोश त्वचा से शुक्रपर्यन्त सप्तधातुमय है जो कि पृथ्वी तत्व से सम्बन्धित है। नियमित आहार विहार से अन्नमय कोश पुष्ट व स्वस्थ रहता है।

दुसरा है,  प्राणमय कोश- शरीर का दूसरा भाग प्राणमय कोश है। शरीर और मन के मध्य में प्राण माध्यम है। ज्ञान कर्म के सम्पादन का समस्त कार्य प्राण से बना प्राणमय कोश ही करता है। श्र्वासोच्छ्वास के रूप में भीतर बाहर जाने-आनेवाला प्राण स्थान तथा कार्य के भेद से दस प्रकार का माना जाता है। जैसे प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान मुख्य प्राण है तथा धनंजय, नाग, कुर्म, कूकल और देवदत्त गौण प्राण या उपप्राण है। प्राण मात्र का मुख्य कार्य है-आहार का यथावत् परिपाक करना शरीर में रसों को समभाव से विभक्त तथा वितरित करते हुए देहेन्द्रियों का तर्पण करना, रक्त के साथ मिलकर देह में सर्वत्र घूम घूमकर मलों का निष्कासन करना जो कि देह के विभिन्न भागों में रक्त में आ मिलते है। शरीर के  द्वारा भाोगों का उपभोग करना भी इसका कार्य है। प्राणायाम के नियमित अभ्यास से प्राणमय कोश की कार्यशक्ति बढ़ती है।

तीसरा है, मनोमय कोश- सूक्ष्म शरीर के इस पहले क्रियाप्रधान भाग को मनोमच कोश कहते हैं। मनोमय कोश के अन्तर्गत मन बुद्धि अहंकार और चित्त है. जिन्हें अन्त:करणचतुष्टय कहते है। ज्ञान एवं ध्यान से मनोमय कोश को शुद्धि एवं पुष्टि होती है। पाँच कर्मेन्द्रियाँ है जिनका सम्बन्ध बाह्य जगत् के व्यवहार से अधिक रहता है।

चौथा है,  विज्ञानमय कोश-  सूक्ष्म शरीर का दूसरा भाग को ज्ञानप्रधान है, वह विज्ञानमय कोश कहलाता है। इसके मुख्यतत्व ज्ञानयुक्त बुद्धि एवं ज्ञानेन्द्रियॉ है। जो मनुष्य ज्ञानपूर्वक विज्ञानमय कोश को ठीक से जान समझकर उचित रूप से आचार विचार करता है और असत्य, भ्रम, मोह, आसक्ति आदि से सर्वधा अलग रहकर निरन्तर ध्यान एवं समाधि का अभ्यास करता है.उसे ‘ऋतम्भरा प्राज्ञा’ उपलब्ध हो जाती है। प्रज्ञावान्  योगी  विवेक एवं वैराग्य से चिरावृतियों को निरुद्ध करके आत्मबोध प्राप्त कर लेता है।

पांचवां है, आनन्दमय कोश-  इस कोश को हिरण्यमय कोश, हृदयगुहा, हृदयकाश, कारणशरीर,लिंगशरीर आदि नामों से भी पुकारा जाता है। यह हमारे हृदय प्रदेश में स्थित होता है। हमारे आन्तरिक जगत्  से इसका सम्बन्ध अधिक  रहता है. बाह्य जगत से बहुत कम। मानव जीवन मानव के स्थूल शरीर का अस्तित्व और संसार के समस्त व्यवहार इसी पर आधारित है।निर्बीज समाधि की प्राप्ति होने पर साधक आनन्दमय कोश में जीवन्मुक्त होकर सदा आनन्दमय स्थिति में रहता है।

 

 

 

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