देहरादून – योग एक जीवन दर्शन है, योग आत्मानुशासन है, योग एक जीवन पद्धति है. योग व्याधिमुक्त व समाधियुक्त जीवन की संकल्पना है। योग आत्मोपचार एवं आत्मदर्शन की श्रेष्ठ आध्यात्मिक विद्या है। योग व्यक्तित्व को वामन से विराट बनाने की या समग्र रूप से स्वयं को रूपान्तरित एवं विकसित करने की आध्यात्मिक विद्या है। योग मात्र एक वैकल्पिक चिकित्या पद्धत्ति नहीं है, अपितु योग का प्रयोग परिणामों पर आधारित एक ऐसा प्रमाण है, जो व्याधिको निर्मूल करता है अतः यह एक ऐसा सम्पूर्ण चिकित्सा शास्त्र है, जो केवल शारीरिक रोगों का ही नहीं, बल्कि मानसिक रोगों का भी निवारण करता है।
योग एलोपैथी की तरह कोई लाक्षणिक चिकित्सा नहीं, अपितु यह रोगों के मूल कारण को दूर कर हमें भीतर से स्वस्थता प्रदान करता है। योग को मात्र एक व्यायाम की तरह देखना या वर्ग विशेष की पूजापाठ की एक पद्धति की तरह देखना संकीर्णतापूर्ण, अविवेकी दृष्टिकोण है। स्वार्थ, आग्रह, अज्ञान एवं अहंकार से ऊपर उठकर योग को हमें एक सम्पूर्ण विज्ञान के रूप में देखना चाहिए।
योग की पौराणिक मान्यता है कि इससे अष्टचक्र जागृत होते हैं एवं प्राणायाम के निरन्तर अभ्यास से जन्म-जन्मान्तर के संचित अशुभ संस्कार व पाप परिक्षीण होते हैं।
अष्टचक्रों की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि की अन्वेषणा की एवं प्राचीन सांस्कृतिक शब्दों का जब अर्वाचीन चिकित्सा विज्ञान के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया तो पाया कि मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, हृदय, अनाहत, आज्ञा, एवं सहस्रार चक्र क्रमशः प्रजनन, उत्सर्जन, पाचन, कंकाल, परिसंचरण, श्वसन, तंत्रिका और अंतःस्रावी तंत्र से संबद्ध हैं। मूलाधार से सहस्रार चक्र तक अष्टचक्रों का जो कार्य है, वही कार्य प्रजनन प्रणाली से लेकर अंतःस्रावी तंत्र (reproductory system से लेकर endocrinal system) का है। क्रियात्मक योगाभ्यास के आठ प्राणायाम इन्हीं अष्टचक्रों अथवा आठ प्रणाली को सक्रिय एवं संतुलित बनाते हैं।
एक-एक प्रणाली के असन्तुलन से अनेक प्रकार की व्याधियाँ या विकार उत्पन्न होते हैं। भाषा कुछ भी हो, विज्ञान एवं अध्यात्म का तात्पर्य एक ही है। भाषा तो मात्र भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम है, लेकिन चार सौ वर्षों की गुलामी की आत्मग्लानि के दौर से हम कुछ ऐसे गुजरे कि हमें वात, पित्त व कफ की बजाय ‘उपचय, अपचय, चयापचय’ (anabolism, catabolism, metabolism) ठीक से समझ आता है।
अपनी परम्परा, संस्कृति व ज्ञान को हम अज्ञानवश आत्मगौरव के रूप में न देखकर आत्मग्लानि से भर गये। ‘चक्र’ पढ़कर चक्कर में पड़ गये, परन्तु (system) ‘प्रणाली’ शब्द को पढ़ कर हम अपने आप को व्यवस्थित कहने लग गये जबकि प्राचीन ज्ञान व अर्वाचीन ज्ञान का तात्पर्य एक ही था- सत्य का बोध होना।