दिवाली की जगमगाहट और बाजारों की रौनक के बीच देहरादून की कुम्हार मंडी के कारीगरों के लिए यह त्योंहार चिंता का सबब बन गया है।
पीढ़ियों से मिट्टी को अपने कुशल हाथों से आकार देकर दीये, लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियां,
और सजावटी बर्तन बनाने वाले इन कारीगरों का पारंपरिक हुनर आज मिट्टी की भारी कमी और बढ़ती कीमतों के कारण संकट में है।
यह सिर्फ एक पेशे का नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति और परंपरा के एक महत्वपूर्ण हिस्से के अस्तित्व का सवाल है।
कुम्हारों का पारंपरिक हुनर: संस्कृति का जीवंत प्रतीक
कुम्हार मंडी के कारीगर न केवल मिट्टी के बर्तन बनाते हैं, बल्कि अपनी कला के जरिए भारत की सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखते हैं।
मिट्टी के दीये और मूर्तियां सिर्फ उपयोग की वस्तुएं नहीं, बल्कि आस्था, परंपरा और कला का प्रतीक हैं।
कारीगरों के चाक पर घूमती मिट्टी से उभरने वाली हर मूर्ति और हर दीया उनकी पीढ़ीगत कुशलता और समर्पण की कहानी कहता है।
लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों में बारीक नक्काशी, दीयों पर रंग-बिरंगे डिजाइन, और मिट्टी के बर्तनों की अनूठी बनावट इन कारीगरों की मेहनत और रचनात्मकता का प्रमाण हैं।
कारीगर श्यामलाल, जो 40 साल से इस पेशे में हैं, बताते हैं, “हमारे पुरखों ने हमें यह कला सिखाई थी।
हर दीया, हर मूर्ति में हमारा प्यार और मेहनत होती है। लेकिन अब मिट्टी ही नहीं मिलती, तो हम अपने हुनर को कैसे दिखाएं?”
मिट्टी की किल्लत: हुनर पर संकट
कुम्हारों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है चिकनी मिट्टी की कमी। अनियंत्रित शहरीकरण और निर्माण कार्यों ने उन क्षेत्रों को प्रभावित किया है,
जहां पहले कारीगर आसानी से मिट्टी प्राप्त कर लेते थे। पहले 4000 रुपये में मिलने वाली मिट्टी की एक ट्रॉली अब 14000 रुपये तक पहुंच गई है।
इस बढ़ती लागत ने कारीगरों के मुनाफे को लगभग खत्म कर दिया है। मांग को पूरा करने के लिए कई कारीगरों को कोलकाता जैसे शहरों से महंगी मूर्तियां और डिजाइनर दीये मंगवाने पड़ रहे हैं, जो उनकी आर्थिक स्थिति पर और बोझ डाल रहा है।
कुम्हारी कला के लिए चिकनी मिट्टी अनिवार्य है, क्योंकि यह न केवल आसानी से आकार लेती है, बल्कि पकाने के बाद भी टिकाऊ रहती है।
लेकिन अब स्थानीय स्तर पर मिट्टी की उपलब्धता इतनी कम हो गई है कि कारीगरों को अपनी कला को जीवित रखने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है।
सांस्कृतिक और आर्थिक महत्व
कुम्हारों का यह हुनर केवल उनकी आजीविका का साधन नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा है।
दिवाली के दीये रोशनी के त्योहार का प्रतीक हैं, जो अंधेरे पर उजाले की जीत का संदेश देते हैं।लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियां धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व रखती हैं।
लेकिन मिट्टी की कमी और बढ़ती लागत के कारण कारीगरों को न केवल आर्थिक नुकसान हो रहा है, बल्कि उनकी सांस्कृतिक विरासत भी खतरे में पड़ रही है।
एक कारीगर, रमेश कुमार, भावुक होकर कहते हैं, “हमारे दीये सिर्फ मिट्टी के टुकड़े नहीं, हमारी पहचान हैं।
अगर यह काम बंद हुआ, तो हमारी अगली पीढ़ी क्या करेगी? हमारी संस्कृति का यह हिस्सा कैसे बचेगा?”
कारीगरों की मांग: नीति और समर्थन
कुम्हार समुदाय ने सरकार से मिट्टी की आपूर्ति के लिए ठोस नीति बनाने की गुहार लगाई है।
उनकी मांग है कि मिट्टी खनन के लिए विशेष लाइसेंस दिए जाएं या स्थानीय स्तर पर मिट्टी की उपलब्धता सुनिश्चित की जाए।
इसके अलावा, वे चाहते हैं कि उनकी कला को बढ़ावा देने के लिए सरकारी योजनाएं शुरू की जाएं,
जैसे कि कारीगरों के लिए प्रशिक्षण केंद्र, सब्सिडी पर मिट्टी की आपूर्ति, और उनके उत्पादों के लिए बाजार उपलब्ध कराना।
आगे की राह
कुम्हार मंडी के कारीगरों का यह संकट केवल उनकी व्यक्तिगत समस्या नहीं, बल्कि एक सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दा है।
अगर समय रहते इस दिशा में कदम नहीं उठाए गए, तो यह पारंपरिक कला और इससे जुड़ी सांस्कृतिक धरोहर हमेशा के लिए खो सकती है।
कारीगरों का कहना है कि वे सिर्फ दिवाली के लिए दीये नहीं बनाते, बल्कि अपनी कला के जरिए भारतीय संस्कृति को रोशन करते हैं।
इस दिवाली, जब हम दीयों की रोशनी में अपने घरों को सजाएं, तो उन कारीगरों के संघर्ष को भी याद करें, जिनके हाथों ने इन दीयों को आकार दिया।
सरकार और समाज के समर्थन से ही यह पारंपरिक हुनर नई पीढ़ियों तक पहुंच सकता है, और कुम्हार मंडी का दीया फिर से पूरे जोश के साथ जल सकता है।