देहरादून – पूर्वनिर्दिष्ट सभी प्राणायाम करने के बाद श्वास-प्रश्वास पर अपने मन को टिकाकर प्राण के साथ उद्गीथ ‘ओ३म्’ का ध्यान करें। भगवान् ने ध्रुवों को आकृति ओंकारमयी बनाई है। यह पिण्ड (देह) तथा समस्त ब्रह्माण्ड ओंकारमय है।
‘ओंकार’ कोई व्यक्ति या आकृति विशेष नहीं है, अपितु एक दिव्यशक्ति है, जो इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का संचालन कर रही है। द्रष्टा बनकर दीर्घ एवं सुक्ष्म गति से श्वास को लेते एवं छोड़ते समय श्वास की गति इतनी सूक्ष्म होनी चाहिए कि स्वयं को भी श्वास की ध्वनि की अनुभूति न हो तथा यदि नासिका के आगे रूई भी रख दें तो वह हिले नहीं।
धीरे-धीरे अभ्यास बढ़ाकर प्रयास करें कि एक मिनट में एक श्वास तथा एक प्रश्वास चले। इस प्रकार श्वास को भीतर तक देखने का भी प्रयत्न करें। प्रारम्भ में श्वास के स्पर्श की अनुभूति मात्र नासिकाग्र पर होगी।
धीरे-धीरे श्वास के गहरे स्पर्श को भी अनुभव कर सकेंगे। इस प्रकार कुछ समय तक श्वास के साथ द्रष्टा, अर्थात् साक्षीभावपूर्वक ओंकार का जप करने से ध्यान अपने आप होने लगता है।
आपका मन अत्यन्त एकाग्र तथा ओंकार में तन्मय और सारूप हो जायेगा। प्रणव के साथ-साथ वेदों के महान् मन्त्र गायत्री का भी अर्थपूर्वक जप एवं ध्यान किया जा सकता है। इस प्रकार साधक ध्यान करते-करते संज्यिादानन्द-स्वरूप ब्रह्म के स्वरूप में तद् रूप होता हुआ समाधि के अनुपम दिव्य आनन्द को भी प्राप्त कर सकता है।
सोते समय भी इस प्रकार ध्यान करते हुए सोना चाहिए। ऐसा करने से निद्रा भी योगमयी हो जाती है, दुःस्वप्न से भी छुटकारा मिलेगा तथा निद्रा शीघ्र आयेगी एवं प्रगाढ़ रहेगी।
प्रणव प्राणायाम का समय
द्रष्टा बनकर या साक्षी होकर जब एक लय के साथ श्वासों पर मन को केन्द्रित कर देते हैं तो प्राण स्वतः सूक्ष्म हो जाता है और 10 से 20 सेकण्ड में एक बार श्वास अन्दर जाता है और 10 से 20 सेकेण्ड में श्वास बाहर निकलता है।
लम्बे अभ्यास से योगी का 1 मिनट में एक ही श्वास चलने लग जाता है। भस्त्रिका, कपालभाति, बाह्य, अनुलोम-विलोम, भ्रामरी एवं उद्गीथ के बाद यह विपश्यना या प्रेक्षाध्यान रूप प्रणव प्राणायाम किया जाता है।
यह पूरी तरह ध्यानात्मक है। 3 से 5 मिनट प्रत्येक व्यक्ति को यह ध्यानात्मक प्राणायाम अवश्य करना चाहिए। समाधि के अभ्यासी योगी साधक प्रणव के ध्यान के साथ श्वासों की इस साधना को समय की उपलब्धता के अनुसार घंटों तक भी करते हैं।
इस प्रक्रिया में श्वास से किसी तरह की ध्वनि नहीं होती अर्थात् यह ध्वनिरहित साधना साधक को भीतर के गहरे मौन में ले जाती है, जहाँ साधक की इन्द्रियों का मन में, मन का प्राण में, प्राण का आत्मा में और आत्मा का विश्वात्मा अथवा परमात्मा में लय हो जाता है,
इस प्रकार साधक को ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है। प्राणायाम से प्रारम्भ हुई साधना से, अर्थात् प्राणायाम की निरन्तरता से प्रत्याहार, प्रत्याहार की निरन्तरता से धारणा, धारणा की निरन्तरता व दृढ़ता से ध्यान एवं ध्यान की निरन्तरता से समाधि की सहज प्राप्ति होती है।
इस प्राण साधना से धारणा, ध्यान एवं समाधि के संयोग से ‘त्रयमेकत्र संयमः’ संयम प्राप्त होता है। संयम से प्रज्ञालोक, प्रज्ञालोक से सैल्फ हीलिंग एवं सैल्फ रियलाइजेशन की अनुभूति को साधक प्राप्त कर लेता है।
उसके चारों ओर एक प्रखर आभामंडल तैयार हो जाता है जो एक अभेद्य सुरक्षा कवच बनकर साधक की सब व्याधियों एवं विकारों से रक्षा करता है।
