देहरादून – प्राण-साधना के निरन्तर अभ्यास से जब चक्रों में रहनेवाली शक्ति पर आधिपत्य हो जाता है. तब मूलाधार से सहस्त्रार तक ‘प्राणशक्ति’ को स्वेच्छा पूर्वक संचालित कर लेने के सामर्थ्य से समस्त चक्रों का एवं उत्तरोत्तर अगले अगले कोशों का साक्षात्कार कर लेना अति सरल हो जाता है। प्रारम्भ में ‘सौषुम्ण-ज्योति’ दर्शाती है कि प्राणायाम के निरन्तर अभ्यास से नाडी-जाल विशुद्ध हो जाता है तो प्राण और सुषुम्णा का समस्त पथ आलोकित हो उठता है। कपालस्थ ‘सूक्ष्म-शरीर’ का मुख्य भाग बुद्धि (1) से प्रेरित मन (2) का प्रकाश सुषुम्णा-शीर्ष (3) के पथ से बढ़ता हुआ, समस्त ‘नाड़ी युगल’ (4) को प्रकाशित करता हुआ मूलाधार चक्र (5) से प्रवाहित होता है।
