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पेट से श्वसन की मान्यता अवैज्ञानिक

देहरादून – परमात्मा या प्रकृति ने मानव-शरीर की संरचना कुछ इस प्रकार की है कि मनुष्य की श्वास नली 24 घंटे खुली रहती है। एपिग्लॉटिस नाम का एक कार्टिलेज होता है। जब हम भोजन करते हैं तो यह आहार (खाद्य पदार्थ) के अन्दर प्रवेश करते समय ढक्कन की तरह श्वास नली को बन्द कर देता है। शेष समय सदा खुला रहता है। हमारे यहाँ परम्परा से खाते समय बोलने का निषेध भी इसीलिए है कि श्वास नली का ऊपरी हिस्सा, जिसे लैरिक्स कहते हैं, बोलने तथा श्वास को अन्दर लेने में मदद करता है। अतः जब कभी यदि हम खाते समय बोलते हैं तो हमारा आहार श्वास नली में चला जाता है और हमें खांसी हो जाती है, क्योंकि उस समय लैरिक्स को कार्य करना पड़ता है, अत: एपिग्लोटिस लैरिंक्स को बन्द नहीं कर पाता है। यह स्पष्टीकरण इसलिए दिया कि हमारी आहारनली व श्वासनली दोनों पृथक् पृथक् हैं। हम भोजन करते हैं तो वह सीधा आहारनली से उदर में जाता है तथा श्वास (प्राण) श्वासनली से सीधा फेफड़ों में जाता है और यह एक महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक सत्य है कि हमारे पेट में आमाशय, यकृत् व आन्त्र आदि कोई भी ऐसा अवयव नहीं है, जो ऑक्सीजन को अवशोषित कर सके। मात्र फेफड़ों से ही रक्त कणिकाएँ ऑक्सीजन को अवशोषित कर हृदय सहित पूरे शरीर में सम्प्रेषित करती है। अतः सदा  ‘डायफ्रैग्मेटिक डीप ब्रीदिग’ या ‘थोरेसिक ब्रीदिग अप टू डायफ्राम’ यह प्राणायाम के समय श्वासन  की सही प्रणाली है। ‘एब्डोमिनल ब्रीदिंग’ पूर्णतया अवैज्ञानिक व निष्प्रयोजन से निष्प्रयोजन से अभिप्राय है कि यदि कोई  भस्त्रिका या अनुलोम-विलोम आदि प्राणायामों में पेट से श्वसन करता भी है तो क्योंकि पेट में ऑक्सीजन अवशोषित तो होगा नहीं, अतः प्राणायाम का कोई लाभ आप अर्जित नहीं कर  पायेंगे। पेट से श्वसन का भ्रम इसलिए पैदा हो जाता है, क्योंकि जब हम गहरा श्वास भरते हैं तो वह श्वास सदा फेफड़ों में ही जाता है परन्तु फेफड़ों में प्राण के प्रवेश से डायफ्राम फूल जाता है, जो हमारे फेफड़ों और पेट के ठीक बीच में  होता है और एक आम आदमी को ऐसा लगता है कि पेट में श्वास जा रहा है जबकि वस्तु-स्थिति बिल्कुल साफ है कि श्वास तो फेफड़ों में ही जा रहा है। डायफ्राम के फूलने से लगता है कि पेट फूल रहा है। इन सब तथ्यों के बावजूद कोई भी पेट से श्वसन करता है तो  वह पूर्णतः अवैज्ञानिक है। दुर्भाग्य से अधिकांश योगाचायों ने भी अपनी पुस्तकों में शरीर-विज्ञान का पूरी तरह  बोध न होने के कारण पेट से दीर्घ श्वसन का विधान किया हुआ है. जो कि तर्के व युक्ति के  विरुद्ध होने के कारण स्वीकार्य नहीं है।

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