“प्राण जीवनीय शक्ति”
देहरादून – जिस प्रकार ब्रह्माण्ड में अनेक शक्ति-क्षेत्र तथा बल होते हैं उसी प्रकार हमारे शरीर में भी प्राणशक्ति होती है जो बाहा क्षेत्र से हमारे श्वास -प्रश्वास से जुड़ी होती है। यदि किसी भी प्रकार का असन्तुलन या रिसाव इस प्राणशक्ति का होता है तो व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। अतः प्राण व उदान के समन्वय हम प्राणशक्ति का सन्तुलन बनाये रख सकते हैं। इसलिये श्वास व प्रश्वास के एक अर्थ में हमें चैतन्य की प्राप्ति होती है।
श्वसन एवं मस्तिष्क
श्वसन क्रिया को नासाछिद्र अत्यंत वांछनीय हैं। इन्हीं नासाछिद्रों से श्वसन क्रिया ग्रहण की गई प्राणवायु को शोधित एवं तापमान को नियंत्रित करने का कार्य होता है। नासाछिद्र जो कपाल का एक भाग है मस्तिष्क को एक ऐसी संरचना प्रदान करता है जिससे मस्तिष्क में उपस्थित किसी भी अवयव का स्राव होने की संभावना नगण्य होती है। मस्तिष्क द्वारा ही श्वसन क्रिया को दिशानिर्देश दिये जाते हैं तथा नियंत्रण किया जाता है।
परंतु यह तथ्य बहुत कम लोग जानते हैं कि मस्तिष्क से भी श्वसन क्रिया की जाती है और इसी श्वसन क्रिया के द्वारा ही मस्तिष्क कार्यशील हो पाता है। मस्तिष्क से जाने वाली श्वसन क्रिया के द्वारा ही सूर्य की किरणों से प्राप्त ऊर्जा तथा प्राणवायु का संचरण मानव शरीर में संभव हो पाता है। पूर्वी देशों के दर्शन तथा आयुर्वेद मनीषियों द्वारा यह माना गया है कि मस्तिष्क भी श्वसन क्रिया व स्पन्दन आदि क्रियायें करता है।
मस्तिष्कतंत्रिकीय द्रव
मस्तिष्क में उपस्थित मस्तिष्कतंत्रिकीय द्रव (cerebrospinal fluid) कोशिका स्तर पर संदेशवाहक न्यूरोपेप्टाइड्स (messenger neuropeptides )का नियंत्रण करता है जो विभिन्न शारीरिक क्रियाओं में साम्य स्थापित करने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मस्तिष्कतंत्रिकीय द्रव मस्तिष्क तथा सुषुम्णा काण्ड के मिलने के स्थान पर संचरित होत है।
इसके संचरण में प्रयुक्त होने वाली यांत्रिकी में स्थित दो पम्प सुषुम्णा काण्ड में कार्य करते हैं। सतह पर क्रेनियम पम्प स्थित होता है। तथा तल पर सेक्रम पम्प स्थित होता है। प्राणायाम की क्रिया में जब श्वास भीतर तथा बाहर किया जाता है,
उस समय महाप्राचीरा पेशी में संकुचन व अकुंचन के फलस्वरूप मस्तिष्कतत्रिकीय द्रव (CSF) को नियंत्रित करने वाले दोनों पम्प क्रियाशील हो जाती है तथा इसी संकुचन के कारण सेक्रल पम्प सतह पर मस्तिष्कतंत्रिकीय द्रव को मस्तिष्क में संचरित करता है एवं श्वास छोड़ते समय मस्तिष्कतत्रिकीय द्रव सुषुम्मा काण्ड में संचरित होता है।
न्यरोपेप्टाइडस
मस्तिष्कतत्रिकीय द्रव में संदेशवाहक का कार्य करने वाले अणुओं को न्यूरोपेप्टाइड्स कहते हैं। न्यूरोपेप्टाइड्स तंत्रिका तंत्र में समस्त शारीरिक क्रियाओं को संचालित करने वाली सूचनाओं का आदान-प्रदान करते हैं. जिससे मस्तिष्क व अन्य अंगों में साम्य बनाये रखने का कार्य कोशिकीय स्तर पर इनके द्वारा सम्पादित किया जाता है।
विभिन्न अनुसंधानों द्वारा अभी तक कुत 100 से अधिक न्यूरोपेप्टाइड्स ज्ञात हो चुके हैं। न्यूरोपेप्टाइड्स न केवल शरीर की भौतिक क्रियाओं को संपादित करते हैं, बल्कि मानव मस्तिष्क में होने वाली भावनात्मक क्रियाओं को भी नियंत्रित करते हैं। शरीर में अनुभव होने वाली पीड़ा को मस्तिष्क में महसूस कराने में इन न्यूरोपेप्टाइड्स का कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण है।
वर्तमान में दी जाने वाली दर्दनिवारक औषधियाँ इन न्यूरोपेप्टाइड्स पर स्थित ग्राहक स्थलों पर संयुक्त हो जाती हैं जिसके कारण दर्द अनुभव नहीं हो पाता है। अभी तक दी जाने वाली दर्द निवारक औषधियों में मार्फिन के अणु इन न्यूरोपेप्टाइस के ग्राहक स्थलों पर सर्वाधिक जुड़ने की क्षमता रखते हैं,
जिसके कारण यह आज भी सर्वाधिक प्रचलित दर्दनिवारक दवा के रूप में प्रयुक्त किया जाता है, परंतु वह सब अस्थायी होता है। प्राणायाम में की जाने वाली यह क्रिया मस्तिष्कतत्रिकीय द्रव के संचरण द्वारा मस्तिष्क व सुषुम्णा काण्ड के मध्य इन्ट्राक्रेनियल दबाव (intra-cranial pressure) के उत्पन होने के फलस्वरूप हरमैटिक कोष में स्पन्दन होने के कारण होती है।
मस्तिष्कतंत्रिकीय द्रव का संचरण जब अपने चरम पर होता है उस अवस्था में हमारा मस्तिष्क अत्यधिक क्रियाशील एवं चेतन अवस्था में होता है। आधुनिक अनुसंधानों द्वारा इस क्रिया के दौरान उत्पन्न होने वाली ध्वनि व मस्तिष्कतत्रिकीय द्रव में उत्पन्न होने वाले तरंगों को स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है।
अनुलोम-विलोम व भ्रामरी प्राणायाम द्वारा भी यह अवस्था प्राप्त की जाती है जिसमें मस्तिष्क के दाएँ व बाएँ दोनों हिस्से समान रूप से क्रियाशील किए जाते हैं। अनुलोम-विलोम प्राणायाम से प्राप्त अवस्था की यांत्रिकी को निम्न प्रकार समझा जा सकता है। प्राणायाम से प्राप्त अवस्था को यात्रिको को निम्न प्रकार समझा जा सकता है।
तीसरा नेत्र
वर्तमान में आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने पूर्व में योगविज्ञान से प्रतिपादित सिद्धांत “नाडी द्वारा मस्तिष्क के दोनों भागों का प्रयोग” को अत्यंत महत्व प्रदान किया जा रहा है। योगविज्ञान में नाडी को मानवशरीर में प्रवाहित होने वाले भौतिक, मानसिक व आध्यात्मिक ऊर्जा का माध्यम बताया गया है।
शरीर में हजार से भी अधिक नाडियां स्थित हैं, किन्तु इन सभी नाडियों में इडा, पिंगला सुषुम्णा नाडी सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। सामान्य अवस्था में केवल इडा अथव पिगला नाडियाँ ही सक्रिय रहती हैं, सुषुम्णा नाडी सामान्यतया निष्क्रिय ही रहती है श्वसन क्रिया के दौरान शरीर में प्रविष्ट होने वाली प्राणवायु या तो इडा नाडी मध्य से अथवा पिंगला नाडी के मध्य से यात्रा करती है।
इडा (चन्द्रस्वर) नाडी का आरम्भ बाएँ नासाछिद्र से होता है, जो दाएँ नासाछिद्र से मिलता है। इस प्रकार प्रवाहित प्राणवायु लघु मस्तिष्क (cerebellum) व मेड्युला ऑब्लॉगेटा (medulla oblongata) में प्रविष्ट होती हुई. सुषुम्णा काण्ड के बाएँ तरफ यात्रा करते हुए सुषुम्णा काण्ड के अंत में यात्रा समाप्त करती है।
इसी प्रकार ठीक विपरीत दिशा में पिंगला (सूर्यस्वर) नाडी द्वारा भी प्राणवायु के संचरण का कार्य संपादित होता है। नासिका के आन्तरिक कोषों में स्थित प्रत्येक नासिका छिद्र में कार्टिलेज नामक ऊतक से बने द्वार होते हैं, जिनका पूर्ण नियंत्रण आज्ञाचक्र के द्वारा संपादित होता है।
श्वसन की अवस्था में जब एक छिद्र खुलता है तो उसी समय दूसरे नासिका छिद्र से श्वास का प्रवेश पूर्णतया बंद रहता है। नासिका के ऊपरीभाग (छत) पर, जहां दोनों नासाछिद्र संयुक्त होते हैं एवं जहां इडा एवं पिंगला नाडी का उद्गम स्थान होता है, वहां शरीर का प्रमुख जीवनीय बिन्दु (vital spot) होता है।
यहीं पर इडा (parasympathetic) परानुकम्पी एवं पिंगला (sympathetic )अनुकम्पी संयुक्त कर एक प्लेक्सस (plexus) बनाती है, जिसे आज्ञाचक्र कहते हैं।हमारे जीवनसाधना के शास्त्रों में इसे तीसरे नेत्र (the third eye) की संज्ञा दी गयी है। जो साधक इस बिन्दु को सक्रिय कर लेता है, वह अद्वितीय शक्ति को धारण कर लेता है।