देहरादून – अनुलोम-विलोम प्राणायाम करने की विधि, दायें हाथ को उठाकर दायें हाथ के अंगुष्ठ के द्वारा दायाँ स्वर (पिंगला नाड़ी) तथा अनामिका एवं मध्यमा अंगुलियों के द्वारा बायाँ स्वर बन्द करना चाहिए। हाथ की हथेली को नासिका के सामने न रखकर थोड़ा पाश्र्वभाग में रखना चाहिए।
इड़ा नाड़ी (वाम स्वर) चूँकि सोम, चन्द्रशक्ति या शान्ति का प्रतीक है. इसलिए नाड़ी-शोधन हेतु अनुलोम-विलोम प्राणायाम को बाई नासिका से प्रारम्भ करते हैं। अंगुष्ठ के माध्यम से दाहिनी नासिका को बन्द करके बाई नाक से श्वास धीरे-धीरे अन्दर भरना चाहिए।
वास पूरा अन्दर भरने पर, अनामिका एवं मध्यमा से वाम स्वर को बन्द करके दाहिनी नाक से पूरा श्वास बाहर छोड़ देना चाहिए। धीरे-धीरे श्वास-प्रश्वास की गति मध्यम और फिर तीव्र करनी चाहिए। तीव्र गति से पूरी शक्ति के साथ श्वास अन्दर भरें और बाहर निकालें एवं अपनी शक्ति के अनुसार श्वास- प्रश्वास के साथ गति मन्द,मध्यम और तीव्र करें।
तीव्र गति से पूरक, रेचक करने से प्राण की तेज ध्वनि होती हैं। श्वास पूरा बाहर निकलने पर वाम स्वर को बन्द रखते हुए ही दाईं नाक से श्वास पूरा भरकर बाईं नासिका से बाहर छोड़ना चाहिए।यह एक प्रक्रिया पूरी हुई। इस प्रकार इस विधि को सतत करते रहना, अर्थात् बाई नासिका से श्वास लेकर दाएँ से बाहर छोड़ देना, फिर दाएँ से लेकर बाई ओर से वास को बाहर छोड़ देना।
इस क्रम को लगभग एक मिनट तक करने पर धकान होने लगती है। थकान होने पर बीच में थोड़ा विश्राम करके, थकान दूर होने पर पुनः प्राणायाम करें। इस प्रकार इस प्राणायाम को तीन मिनट से प्रारम्भ करके दस मिनट तक किया जा सकता है।
कुछ दिन तक नियमित अभ्यास करने से साधक का सामर्थ्य बढ़ने लगता है, और लगभग एक सप्ताह में वह बिना रुके पाँच मिनट तक इस प्राणायाम को करने लगता है।
अनुलोम-विलोम के निरन्तर अभ्यास से मूलाधार चक्र में सन्निहित शक्ति का जागरण होने लगता है। इसे ही वेदों में ‘ऊध्वरेतस्’ होना और अर्वाचीन योग की भाषा में कुण्डलिनी जागरण कहा जाता है। इस प्राणायाम को करते समय प्रत्येक श्वास-प्रश्वास के साथ ‘ओ३म्’ का मानसिक रूप से चिन्तन और मनन भी करते रहना चाहिए। ऐसा करने से मन ध्यान की उन्नत अवस्था में अवस्थित हो जाता है।
