देहरादून – सिद्धयोग के अन्तर्गत कुण्डलिनी का जागरण शक्तिपात द्वारा किया जाता है। यदि कोई परम तपस्वी, साधनाशील सिद्धगुरु मिल जायें तो उनके प्रबलतम ‘शक्तिसम्पात’, अर्थात् मानसिक संकल्प से शरीर में व्याप्त ‘मानस दिव्य तेज’
साधक को इन चक्रों का यह पूर्वरूप ही प्रथम दृष्टिगोचर होता है। तदनन्तर ध्यान के द्वारा अन्तःशरीर में प्रवेश कर जाने पर योगाभ्यासी को समस्त अतीन्द्रिय अन्तः-साक्षात्कार तथा अति दूरदर्शन उपलब्ध हो जाता है।
प्रारम्भ में दिव्य दृष्टि का रूप स्पष्ट करता है- चित्त (1) में जीवात्मा की ज्योति सदा चित्त एवं अहं को ज्योतिर्मय रखती है,
वह पथ (4,5) के द्वरा कपाल में स्थित विज्ञानमय कोश (4) को प्रेरित करती हुई मन (3) को प्रेरणा देती है कि वह (मन) अपनी ज्योति से अन्तनेंत्र को दिव्यता प्रदान कर,
मन (6) अपनी रश्मियों (5) के द्वारा अन्तःनेत्र (7) को दिव्य बना रहा है। योगाभ्यासी के संकल्प-बल से प्रेरित ‘दिव्य दृष्टि’ (8) निजरश्मि-प्रवाह (9) के गुरा घुलोक में सूर्य-मण्डल से भी परे तक,
तथा भूगर्भ में प्रविष्ट होकर (1-10) के द्वारा पाताल तक के पदार्थों का साक्षात्कार करा देती है।ये शक्ति-केन्द्र, अर्थात् चक्र, मेरुदण्डगत सुषुम्णा नामक ज्योतिर्मयी नाड़ी में सूक्ष्म बीज रूप में स्थापित हैं।