देहरादून – ध्यान लगाने से पहले साधक को सदा विवेक और वैराग्य के भाव में रहना चाहिए। स्वयं को द्रष्टा, साक्षी के रूप में अवस्थित रखकर अनासक्त भाव से समस्त शुभ कार्यों को भगवान् की सेवा मानकर करना चाहिए।
कर्त्तव्य का अहंकार एवं फल की अपेक्षा से रहित कर्म भगवान् का क्रियात्मक ध्यान है।बाह्यसुख की प्राप्ति का विचार एवं सुख के समस्त साधन सब दुःख-रूप हैं।
संसार में जब तक सुखबुद्धि बनी रहेगी, तब तक भगवत्समर्पण, ईश्वर-प्रणिधान के ध्यान एवं समाधि तक पहुँचना असम्भव है।
इस प्रकार प्रत्येक मुमुक्षु को प्रतिदिन कम से कम एक घण्टा जप, ध्यान एवं उपासना अवश्य करनी चाहिए। ऐसा करने पर इसी जन्म में सम्पूर्ण दुःखों की समाप्ति और परमपिता परमेश्वर की अनुभूति हो सकती है।
यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि जीवन का मुख्य लक्ष्य आत्मसाक्षात्कार तथा प्रभु-प्राप्ति है. शेष सब कार्य एवं लक्ष्य गौण हैं।