देहरादून – चक्र-शोधन या कुण्डलिनी जागरण जो शक्ति इस ब्रह्माण्ड में है, वही शक्ति इस पिण्ड में भी है- ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे।’ शक्ति का मुख्य आधार मूलाधार चक्र है।
मूलाधार चक्र के जागृत होने पर दिव्य शक्ति ऊर्ध्वगामिनी हो जाती हैं; यह कुण्डलिनी जागरण हैं। जैसे सब जगह विद्युत् के तार बिछाये हुए हों तथा बल्ब आदि भी लगाये हुए हों, उनका नियन्त्रण मेन स्विच से जुड़ा होता है।
जब मुख्य स्विच को ऑन कर देते हैं, तब सभी यन्त्रों में विद्युत् का प्रवाह होने से सब जगह रोशनी होने लगती है। इसी प्रकार मूलाधार चक्र में सन्निहित दिव्य विद्युतीय शक्ति के जागृत होने पर अन्य चक्रों का भी जागरण स्वतः होने लगता है।
यह कुण्डलिनी शक्ति ऊर्ध्व उत्क्रमण करती हुई जब ऊपर उठती है, तब कहाँ कुण्डलिनी शक्ति पहुँचती है, तब सम्प्रज्ञात समाधि तथा जब सहस्त्रार-चक्र पर पहुँचती है, तब समस्त वृत्तियों का निरोध होने पर असम्प्रज्ञात समाधि होती है।
इसी अवस्था में चित्त में सन्निहित दिव्य ज्ञानालोक भी प्रकट होने लगता है, जिससे ‘ऋतम्भरा प्रज्ञा’ की प्राप्ति होने पर साधक को पूर्ण सत्य का बोध हो जाता है और अन्त में इस ऋतम्भरा प्रज्ञा के बाद साधक को निर्बीज समाधि का असीम, अनन्त आनन्द प्राप्त हो जाता है।
यही योग की चरम अवस्था है। इस अवस्था में पहुंचकर संस्कार-रूप में विद्यमान वासनाओं का भी नाश हो जाने से जन्म एवं मरण मैं बन्धन से साधक जीवन्मुक्त होकर मुक्ति के शाश्वत आनन्द को प्राप्त कर संता है।
