सूर्यभेदी या सूर्यांग प्राणायाम
Dehradun News:- ध्यानोपयोगी आसन में बैठकर दाईं नासिका से पूरक करके तत्पश्चात् जालन्धर बन्ध एवं मूलबन्ध के साथ कुम्भक करें और अन्त में बाई नासिका से रेचक करें। अन्तःकुम्भक का समय धीरे-धीरे बढ़ाते जाना चाहिए।
इस प्राणायाम की आवृत्ति 3, 5 या 7 में बढ़ाकर कुछ दिनों के अभ्यास से 10 तक करें। कुम्भक के समय सूर्यमण्डल के तेज के साथ ध्यान करना चाहिए। ग्रीष्म ऋतु में यह प्राणायाम अल्प मात्रा में करना चाहिए।
इस आसन को करने से लाभ
शरीर में उष्णता तथा पित्त की वृद्धि होती है। वात और कफ से उत्पन्न होने वाले रोग, रक्त एवं त्वचा के दोष, उदर-कृमि, कोढ़, सूजाक, छूत के रोग, अजीर्ण, अपच, स्त्रीरोग आदि में लाभदायक है। कुण्डलिनी जागरण में सहायक है।
बुढ़ापा दूर रहता है। अनुलोम-विलोम के बाद थोड़ी मात्रा में इस प्राणायाम को करना चाहिए। बिना कुम्भक के सूर्यभेदी प्राणायाम करने से हृदयगति और शरीर की कार्यशीलता बढ़ती है तथा वजन कम होता है। इसके लिए इसके 27 चक्र दिन में 2 बार करना जरूरी है।
चन्द्रभेदी या चन्द्रांग प्राणायाम
इस प्राणायाम में बाई नासिका से पूरक करके, अन्तः कुम्भक करें। इसे जालन्धर एवं मूलबन्ध के साथ करना उत्तम है। तत्पश्चात् दाई नाक से रेचक करें। इसमें हमेशा चन्द्रस्वर से पूरक एवं सूर्यस्वर से रेचक करते हैं। सूर्यभेदी इससे ठीक विपरीत है। कुम्भक के समय पूर्ण चन्द्रमण्डल के प्रकाश के साथ ध्यान करें। शीतकाल में इसका अभ्यास कम करना चाहिए।
इस आसन को करने से लाभ
शरीर में शीतलता आने से थकावट एवं उष्णता दूर होती है। मन की उत्तेजनाओं को शान्त करता है। पित्त के कारण होने वाली जलन में लाभदायक है।
