देहरादून – मूलाधार चक्र यह चक्र गुदामूल से दो अंगुल ऊपर और उपस्थमूल से दो अंगुल नीचे है। इसके मध्य से सुषुम्णा (सरस्वती) नाडी और वाम कोण में इडा (गंगा) नाही निकलती इसलिए इसे मुक्त त्रिवेणी भी कहते हैं।
मूलशक्ति अर्थात कुण्डलिनी अर्थात् कुण्डलिनी- शक्ति का आधार होने से इसे मूलाधार चक्र कहते हैं। इस चक्र पर ध्यान करने के आरोग्यता दक्षता एवं कर्म कौशल आदि गुणों का विकास होता है।
इस चक्र के जागृत होने से पुरुष ऊर्ध्वरेता, ओजस्वी एवं तेजस्वी बनता है तथा शरीर की समस्त व्याधियां नष्ट हो जाती हैं।इस प्रथम चक्र मूलाधार को सविता (बुद्धि के तेज) से प्रेरित ‘मानस-रश्मियाँ’ प्रकाशित कर रही हैं।
इस स्थान में फव्वारे या टॉर्च की मन्द ज्योति के समान निकलनेवाला प्रकाश उस तन्तु में से निकल रहा है जो स्वाधिष्ठान चक्र के सामने से मूलाधार तक चला जाता है। यहाँ निबिड अन्धकार जड़ जमाये रहता है।
प्राण-साधना एवं धारणा-ध्यान द्वारा इस अन्धकार को हटाकर ‘मूलाधार’ को प्रकाशित किया जाता है। यही प्रकाश मूलाधारगत समग्र स्थूलता तथा सूक्ष्मता का दर्शन कराता है। इसी को ‘कुण्डलिनी जागरण’ भी कहा जाता है।
(1) सुषुम्णा-शिखर, (2) उदर का निम्न भाग इसी चक्र से सम्बन्धित, (3) गुलाबी रंग की छोटी आँतें. (4) पीले रंग की बड़ी आँतें. (5) बड़ी आँतों के निचले भाग में ‘गुदा-मण्डल’
(मलाशय एवं गुदाद्वार), (6) पुच्छास्थि (मेरुदण्ड का निचला भाग). (7) सुषुम्णा का निम्नद्वार, (8) सुषुम्णा का निचला भाग सौषुम्ण-मुख्य तन्तु, (9) समस्त मूलाधार मण्डल प्रकाशित होता दिखाई दे रहा है।