देहरादून – ध्यानाोपयोगी आसन में बैठकर मेरुदण्ड को सीधा रखने से सुषुम्णा से निकले नाडी गुच्छकों में ‘प्राण’ सरलता से गमनागमन करने लगता है। मेरुदण्ड के झुक जाने से संकुचित बने स्नायु-गुच्छक, अनावश्यक और अवरोधक कफ आदि से लिप्त होने के कारण प्राण-प्रवेश के अभाव से मलिन ही बने रहते हैं।
प्राणमय-रूपी प्राण-साधना के साथ योगाभ्यासी के प्राणमय कोश पर प्रभाव पड़ता है, जिससे प्राणमय कोश के समस्त भाग उत्तेजित होकर रक्त संचार को तीव्रतर करके, स्थान-स्थान पर एकत्रित हुए श्लेष्मा आदि मल को फुफ्फुस, त्वचा. आँतों के पथों से बाहर निष्कासित करते हैं।
फलस्वरूप, शरीर में अनेक प्रकार की विचित्र क्रियाएँ होने लगती हैं एवं शरीर रोमांचित हो उठता है। योग में इसे ‘प्राणोत्थान’ कहते हैं, जो कुण्डलिनी जागरण का प्रथम सोपान है। इसमें विशेष रूप से प्राण की गतिशीलता-जन्य स्पर्शानुभूतियाँ होती रहती है।
अभ्यास की निरन्तरता से प्राणोत्थान के प्रकाशपूर्ण उत्तरार्ध भाग में शरीर में यत्र-तत्र कुछ प्रकाश भी प्रशाखने लगता है एवं कुण्डलिनी जागरण का उत्तरार्ध भाग प्रारक प्रकाश है। दोस प्रकार प्राण-साधना से प्राणमय कोश का साक्षात्कार होता है।
सभी काप्त प्रायण से आबद्ध हैं, अतः चक्रों में आई हुई मालिनता और इनपर छाया भी कोश प्राण प्राणायाम द्वारा दूर हो जाने से शरीरगत चक्रों का चक्रों में होने वाली क्रियाओं का। यहां की शक्तियां का जहां-तहां कार्य करने वाले प्राणों उपप्राणों का इषु और अधिपतियों का साक्षात्कार भी यथा समय हो जाता है।
