देहरादून – ध्यान करते समय ध्यान को हो सर्वोपरि महत्त्व दें। ध्यान के समय किसी भी अन्य विचार को चाहे वह कितना ही शुभ क्यों न हो, महत्त्व न दें।
दान, सेवा एवं परोपकार करना, विद्याध्ययन, गुरुसेवा एवं गोसेवा आदि पवित्र कार्य हैं. परन्तु इनका भी ध्यान के समय ध्यान या चिन्तन न करें। ध्यान के समय चिन्तन, मनन, निदिध्यासन एवं साक्षात्कार का एकमात्र लक्ष्य ब्रह्म होना चाहिए।
ध्यान के समय मन एवं इन्द्रियों को अन्तर्मुखी बनायें तथा ध्यान से पहले प्रतिदिन मन में यह चिन्तन भी अवश्य करें कि मैं प्रकृति, धन, ऐश्वर्य, भूमि, भवन, पुत्र, पौत्र, भार्या आदि रूप नहीं हूँ। ये सब व्यक्त-अव्यक्त सत्त्व मेरे स्वरूप नहीं हैं।
मैं समस्त जड और चेतन बाह्य पदार्थों के बन्धन से पृथक् हूँ। यह शरीर भी मेरा स्वरूप नहीं है। मैं शरीर, इन्द्रियों तथा इन्द्रियों के विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध आदि से रहित हूँ।
मैं मन तथा मन के विषय काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अभिनिवेश-रूप पंचक्लेश से भी रहित हूँ। मैं आनन्दमय, ज्योतिर्मय, शुद्धसत्त्व हूँ। मैं अमृतपुत्र हूँ। उस आनन्द सिन्धु सच्चिदानन्द, सर्वशक्तिमान् भगवान् के साथ ऐसे ही सम्बद्ध हूँ जैसे बूँद समुद्र से आकाश की ओर उठती है,
फिर भूमि पर गिरकर नदियों के प्रवाह से होकर पुनः सागर में ही समाहित हो जाती है।