अनुलोम-विलोम
देहरादून – अक्सर हम देखते हैं कि मस्तिष्क की प्रभाविता का तारतम्य प्रत्येक नासाछिद्र के श्वसन चक्र पर भी निर्भर करता है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार यह तारतम्य सिम्पथैटिक एवं पैरासिम्पथैटिक तंत्रिका तंत्र द्वारा नियंत्रित होता है।
यौगिक विज्ञान के सिद्धान्त “नाडी द्वारा मस्तिष्क के दोनों भागों का प्रयोग” के आधार पर यह तारतम्य इडा एवं पिगला नाडी द्वारा नियंत्रित होता है। अनुलोम-विलोम प्राणायाम से दोनों भागों (मस्तिष्क गोलार्द्ध) संपूर्ण सामञ्जस्य स्थापित हो जाता है।
इस अवस्था में दोनों नासाछिद्र में से संपूर्ण सामंजस्य स्थापित हो जाता है। इस अवस्था में दोनों नासाछिद्र में से प्रविष्ट होने वाली प्राणवायु के हेतु से संतुलन स्थापित हो जाता है। हम देखते हैं कि मस्तिष्कतत्रिकीय द्रव (मस्तिष्कमेरु द्रव) का संचरण अंत श्वास (साँस लेना) को स्थिति में सुषुम्णा काण्ड (रीढ़ की हड्डी) से मस्तिष्क की चोकर तरफ होता है जबकि बहि: श्वास (साँस छोड़ना) की स्थिति में मस्कि सुषुम्णा काण्ड की तरफ होता है।
प्राणवायु के बहाव में सामञ्जस्य से मस्तिष्कतत्रिकीय द्रव के संचरण की स्थिति साम्य अवस्था में आ जाती है। इस समता से शरीर की समस्त कोशिकाओं ऊतकों एवं अंगों को जीवनीय ऊर्जा (महत्वपूर्ण ऊर्जा) का सही वितरण होता है जिससे सभी सुचारु रूप से कार्य करते हैं।
अनुलोम-विलोम प्राणायाम के द्वारा जो एक सहज-स्वाभाविक प्राकृतिक क्रिया है, रक्त में ऑक्सीजन व कार्बन डाइऑक्साइड की सान्द्रता का एकाग्रता नियन्त्रण भी होता है।
क्योंकि रक्त में CO₂ सान्द्रता की अधिकता से जैसे रक्त अत्यधिक अम्लयनयुक्त (अम्लीय, डी-ऑक्सीजनयुक्त) होकर अनेक घातक बीमारियों को उत्पन्न कर देता है,
उसी प्रकार यदि प्राणायामरूप माध्यम के बजाय अन्य किन्हीं ऑक्सीजन चैम्बर या ऑक्सीजन सिलिण्डर आदि कृत्रिम उपायों से ऑक्सीजन की सान्द्रता शरीर में बढ़ जाये या बढ़ा दी जाये तो उससे भी आंख के लैन्स का कठोर हो जाना जिससे दिखना बन्द हो जाना।
इत्यादि अनेक बीमारियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। जबकि रक्त में ऑक्सीजन की सही मात्रा में आपूर्ति से आँखों की ज्योति बढती है, सम्पूर्ण शरीर ही जीवन से भर उठता है,यह हम रोज ही देख रहे हैं।
हमारे मस्तिष्क में न्यूरोपेप्टाइड्स के नियमित उत्पादन के लिए CO, की सही मात्रा भी हमें उतनी ही अपेक्षित है जितनी कि ऑक्सीजन कृत्रिम उपायों से यदि ऑक्सीजन अधिक मात्रा में शरीर में पहुंचा दिया जाता है,
O व CO2, का आवश्यक अनुपात जो हमारे शरीर को चाहिये वह अव्यवस्थित (परेशान करना) हो जाता है। इसी आधार पर हम कह सकते हैं कि अनुलोम विलोम प्राणायाम जटिल से जटिल रोगों को दूर कर सकता है। यह सब लाभ ऑक्सीजन चैम्बर इत्यादि कृत्रिम उपायों से नहीं प्राप्त किया जा सकता।
तनाव की स्थिति (तनावग्रस्त अवस्था)
तनाव की स्थिति में ऑटोनॉमिक (स्वचालित अनैच्छिक) तंत्रिका तंत्र का अनुकम्पी तंत्र अत्यधिक प्रभावी होता है। इस स्थिति में श्वसन क्रिया बहुत ही तीव्र होती है जिससे वक्ष की पेशियों का अत्यधिक प्रयोग होता है। महाप्राचीरा पंशी का उपयोग इसमें न के बराबर होता है।
मस्तिष्करात्रिकीय द्रव (CSF) का बहाव तीव्र व अनियंत्रित होता है, अत: तनाव की सततता शरीर व मन को विभिन्न रोगों से ग्रसित कर देती है। तनाव की चरम स्थिति हृदय की गति, श्वसन-दर और रक्तचाप को बढ़ाती है। इसी स्थिति को तनाव की स्थिति कहते हैं।
इस स्थिति से निजात पाने का एकमात्र उपाय, धीमी गहरी व तारतम्ययुक्त श्वसन क्रिया है जो प्राणायाम द्वारा प्राप्त की जा सकती है। प्राणायाम द्वारा परानुकम्पी क्रियाशीलता एवं ऊतकीय पुनरुद्भवन की स्थिति प्राप्त की जा सकती है।
यह चयापचय की संकुचित अवस्था होती है जिसे एनाबोलिज्म कहते हैं। इस अवस्था में चरमस्थिति रिलेक्सेशन रिस्पान्स (विश्राम प्रतिक्रिया-आरआर) की स्थिति है जिसमें हृदय एवं श्वसन गति न्यून होती है तथा रक्तचाप कम होता है। यही आधारभूत विश्राम-क्रियाशीलता चक्र है।
मस्तिष्क के भीतर दो आवृत्तियाँ होती हैं जिनको अल्फा एवं बीटा कहते हैं। प्राणायाम अभ्यास के दौरान मस्तिष्क आवृत्ति अल्फा आवृत्ति की सीमा में होती है। प्राणायाम का निरन्तर अभ्यास अन्य हानिकारक तरंगों को प्रभावहीन बनाता है।
अल्फा का स्तर मस्तिष्कीय क्रिया रिलेक्सेशन का परिणाम होती है जो स्वास्थ्य ही स्थिति लाने में सहायक होती है।
