देहरादून – उतराखंड मैं बसंत ऋतु में हर तरफ प्राकृतिक छटा बिखेरती है और लोगों की आंखें इस प्राकृतिक छटा को देखने के लिए ललित रहती है यहां हर तरफ हरियाली ही हरियाली और फूलों की बहार रहती है इसी लिए उत्तराखंड में बसंत ऋतु आने पर यहां त्योहारों की झड़ी लग जाती है।
इसी लिए पहड़ों में चाहे गढ़वाल हो या कुमाऊं हो या जौनसार हो लोक पर्व फूलदेई प्रकृति का आभार प्रकट करने वाला है पर्व। यह चैत्र मास की पहली संक्रांति को मनाया जाता है जो वसन्त ऋतु के स्वागत का प्रतीक है।
चैत्र मास के प्रथम दिवस (गते) को उत्तराखण्ड के छोटे-छोटे नन्हे-मुन्ने बच्चे एक दिन पूर्व ही बुराँश, प्योली (फ्यूंली), हांजरी (गेंदा), सरसों, आड़ू इत्यादि के फूल तोड़ कर ले आते हैं।
उसके बाद वह तोड़े गए फूलों को रिंगाल की टोकरी या थाली में सजाकर घर-घर जाकर प्रत्येक घर की देहली में गीत गाते हुए फूल डालते हुए उस घर को धन-धान्य से सम्पन्न होने की कामना करते हैं।
बदले में घर की दादी नानी फूल डालने वाले बच्चों को गुड़, चावल एवं दक्षिणा इत्यादि देकर विदा करते हैं। वसन्त के इस उल्लास तथा प्रकृति की आलोकिक शक्ति, उर्जा को घर घर बाटने की ये अनूठी परंपरा है।
बच्चों द्वारा गाये जाने वाला फूल देई (फुलारी) गीत के बोल-फूल देई, छमा देई,जदुकै दिछा, उतुकै सईदैणी द्वार, भर भकार्,द्वी सास् ब्वारियाँक एक लकार ,हमरी टुपरी भरी जो,तुमार् भकार् ,य देई, सौ बारम्बार,नमस्कार फूल देई, छमा देई…।