बिना बन्धों के प्राणायाम अधूरा

प्राणायाम में उपयोगी बन्धक


देहरादून –योगासन एवं प्राणायाम से हमारे शरीर में जिस शक्ति का बहिर्गमन होता है, उसे हम बन्धों के द्वारा रोककर अन्तर्मुखी करते हैं। बन्ध का अर्थ ही है बाँधना, रोकना। ये बन्ध प्राणायाम में अत्यन्त सहायक हैं। बिना बन्धों के प्राणायाम अधूरे है। इन बन्धों का क्रमशः वर्णन यहाँ किया जा रहा है।

जालन्धर बन्ध :-पद्मासन या सिद्धासन में सीधे बैठकर श्वास को अन्दर भर लें। दोनों हाथ घुटनों पर टिके हुए हों। अब ठोड़ी को थोड़ा नीचे झुकाते हुए कण्ठकूप में लगाना ‘जालन्धर बन्ध’ कहलाता है। दृष्टि को धूमध्य में स्थिर करें। छाती आगे की ओर तनी हुई होगी। यह बन्ध कण्ठस्थान के नाड़ी-जाल को बाँधे रखता है।

लाभ :- कण्ठ मधुर, सुरीला और आकर्षक होता है।कण्ठ के संकोच द्वारा इड़ा, पिंगला नाड़ियों के बन्द होने पर प्राण का सुषुम्णा में प्रवेश होता है।गले के सभी रोगों में लाभप्रद है। थायरॉयड, टॉन्सिल आदि रोगों में अभ्यसनीय है।

विशुद्धि-चक्र की जागृति करता है।

उड्डीयान बन्ध:– प्राण जिस क्रिया से उठकर, उत्थित होकर सुषुम्णा में प्रविष्ट हो जाये उर ‘उड्डीयान बन्ध’ कहते हैं। खड़े होकर दोनों हाथों को सहज भाव से दोनों घुटन पर रखिए। श्वास बाहर निकालकर पेट को ढीला छोड़ें। जालन्धर बन्ध लगाते हुए छाती को थोड़ा ऊपर की ओर उठायें। पेट को कमर से लगा दें। यथाशक्ति करने के पश्चात् पुनः श्वास लेकर पूर्ववत् दोहरायें। प्रारम्भ में तीन बार करना पर्याप्त। धीरे-धीरे अभ्यास बढ़ाना चाहिए।

इसी प्रकार पद्मासन या सिद्धासन में बैठकर भी इस बन्ध को लगायें

लाभ पेट-सम्बन्धी समस्त रोगों को दूर करता है।प्राणों को जागृत कर मणिपूर चक्र का शोधन करता है।

मूलबन्ध सिद्धासन या पद्मासन में बैठकर बाह्य या आभ्यन्तर कुम्भक करते हुए, गुदाभाग एवं मूत्रेन्द्रिय को ऊपर की ओर आकर्षित करें। इस बन्ध में नाभि के नीचे वाला हिस्सा खिंच जायेगा। यह बन्ध बाह्यकुम्भक के साथ लगाने में सुविधा रहती है। वैसे योगाभ्यासी साधक इसे कई-कई घण्टों तक सहजावस्था में भी लगाये रखते हैं। दीर्घ अभ्यास किसी के सान्निध्य में करना उचित है।

लाभ। इससे अपान का ऊर्ध्वगमन होकर प्राण के साथ एकता होती है। इस प्रकार यह बन्ध मूलाधार चक्र को जागृत करता है और कुण्डलिनी जागरण में अत्यन्त सहायक है।

कोष्ठबद्धता और बवासीर को दूर करने तथा जठराग्नि को तेज करने के लिए यह बन्ध अति उत्तम है।वीर्य को ऊर्ध्वगामी बनाता है, साधक को ऊध्वरेता बनाता है। अतः ब्रह्मचर्य के लिए यह बन्ध महत्त्वपूर्ण है।

महाबन्ध: -पद्मासन आदि किसी भी एक ध्यानोपयोगी आसन में बैठकर तीनों बन्धों को एक साथ लगाना ‘महाबन्ध’ कहलाता है। इससे वे सभी लाभ मिल जाते है, जो पूर्वनिर्दिष्ट हैं। कुम्भक में ये तीनों बन्ध लगते हैं।

लाभ प्राण ऊर्ध्वगामी होता है। वीर्य की शुद्धि और बल की वृद्धि होती है।महाबन्ध से इडा, पिंगला और सुषुम्णा का संगम प्राप्त होता है।

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